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कंकाल-अध्याय -७३

मन्दिर के किसी-किसी मुखिया को शास्त्रार्थ की सूझी। भीतर-भीतर आयोजन होने लगा। पर अभी खुलकर कोई प्रस्ताव नहीं आया था। उधर यमुना के अभियोग के लिए सहायतार्थ चन्दा भी आने लगा। वह दूसरी ओर की प्रतिक्रिया थी।

कई दिन हो गये थे। मंगल नहीं था। अकेले गाला उस पाठशाला का प्रबन्ध कर रही थी। उसका जीवन उसे नित्य बल दे रहा था, पर उसे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता कि उसने कोई वस्तु खो दी है। इधर एक पंडितजी उस पाठशाला में पढ़ाने लगे थे। उनका गाँव दूर था; अतः गाला ने कहा, 'पंडितजी, आप भी यहाँ रहा करें तो अधिक सुविधा हो। रात को छात्रों को कष्ट इत्यादि का समुचित प्रबन्ध भी कर दिया जाता और सूनापन उतना न अखरता।'

पंडितजी सात्त्विक बुद्धि के एक अधेड़ व्यक्ति थे। उन्होंनें स्वीकार कर लिया। एक दिने वे बैठे हुए रामायण की कथा गाला को सुना रहे थे, गाला ध्यान से सुन रही थी। राम वनवास का प्रसंग था। रात अधिक हो गयी थी, पंडितजी ने कथा बन्द कर दी। सब छात्रों ने फूस की चटाई पर पैर फैलाये और पंडितजी ने भी कम्बल सीधा किया।

आज गाला की आँखो में नींद न थी। वह चुपचाप नैन पवन-विकम्पित लता की तरह कभी-कभी विचार में झीम जाती, फिर चौंककर अपनी विचार परम्परा की विशृंखल लड़ियों को सम्हालने लगती। उसके सामने आज रह-रहकर बदन का चित्र प्रस्फुटित हो उठता। वह सोचती-पिता की आज्ञा मानकर राम वनवासी हुए और मैंने पिता की क्या सेवा की उलटा उनके वृद्ध जीवन में कठोर आघात पहुँचाया! और मंगल किस माया में पड़ी हूँ! बालक पढ़ते हैं, मैं पुण्य कर रही हूँ; परन्तु क्या यह ठीक है? मैं एक दुर्दान्त दस्यु और यवनी की बालिका-हिन्दू समाज मुझे किस दृष्टि से देखेगा ओह, मुझे इसकी क्या चिन्ता! समाज से मेरा क्या सम्बन्ध! फिर भी मुझे चिन्ता करनी ही पड़ेगी, क्यों इसका कोई स्पष्ट उत्तर नही दे सकती; पर यह मंगल भी एक विलक्षण.. आहा, बेचारा कितना परोपकारी है, तिस पर उसकी खोज करने वाला कोई नहीं। न खाने की सुध, न अपने शरीर की। सुख क्या है-वह जैसे भूल गया है और मैं भी कैसी हूँ-पिताजी को कितनी पीडा मैंने दी, वे मसोसते होंगे। मैं जानती हूँ, लोहे से भी कठोर मेरे पिता अपने दुःख के किसी की सेवा-सहायता न चाहेंगे। तब यदि उन्हें ज्वर आ गया हो तो उस जंगल के एकान्त में पड़े कराहते होंगे।' '

सहसा जैसे गाला के हृदय की गति रुकने लगी। उसके कान में बदन के कराहने का स्वर सुनायी पड़ा, जैसे पानी के लिए खाट के नीचे हाथ बढ़ाकर टटोल रहा हो। गाला से न रहा गया, वह उठ खड़ी हुई। फिर निस्तब्ध आकाश की नीलिमा में वह बन्दी बना दी गयी। उसकी इच्छा हुई कि चिल्लाकर रो उठे; परन्तु निरुपाय थी। उसने अपने रोने का मार्ग भी बन्द कर दिया था। बड़ी बेचैनी थी। वह तारों को गिन रही थी, पवन की लहरों को पकड़ रही थी।

सचमुच गाला अपने विद्रोही हृदय पर खीज उठी थी। वह अथाह अन्धकार के समुद्र में उभचुभ हो रही थी-नाक में, आँख में, हृदय में जैसे अन्धकार भरा जा रहा था। अब उसे निश्चित हो गया कि वह डूब गयी। वास्तव में वह विचारों में थककर सो गयी।

अभी पूर्व में प्रकाश नहीं फैला था। गाला की नींद उचट गयी। उसने देखा, कोई बड़ी दाढ़ी और मूँछोंवाला लम्बा-चौड़ा मनुष्य खड़ा है। चिन्तित रहने से गाला का मन दुर्बल हो ही रहा था, उस आकृति को देखकर वह सहम गयी। वह चिल्लाना ही चाहती थी कि उस व्यक्ति ने कहा, 'गाला, मैं हूँ नये!'

'तुम हो! मैं तो चौंक उठी थी, भला तुम इस समय क्यों आये?'

'तुम्हारे पिता कुछ घण्टों के लिए संसार में जीवित हैं, यदि चाहो तो देख सकती हो!'

'क्या सच! तो मैं चलती हूँ।' कहकर गाला ने सलाई जलाकर आलोक किया। वह एक चिट पर कुछ लिखकर पंडितजी के कम्बल के पास गयी। वे अभी सो रहे थे; गाला चिट उनके सिरहाने रखकर नये के पास गयी, दोनों टेकरी से उतरकर सड़क पर चलने लगे।

नये कहने लगा-

'बदन के घुटने में गोली लगी थी। रात को पुलिस ने डाके में माल के सम्बन्ध में उस जंगल की तलाशी ली; पर कोई वस्तु वहाँ न मिली। हाँ, अकेले बदन ने वीरता से पुलिस-दल का विरोध किया, तब उस पर गोली चलाई गयी। वह गिर पड़ा। वृद्ध बदन ने इसको अपना कर्तव्य-पालन समझा। पुलिस ने फिर कुछ न पाकर बदन को उसके भाग्य पर छोड़ दिया, यह निश्चित था कि वह मर जायेगा, तब उसे ले जाकर वह क्या करती।

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